कुम्भ मेले के दौरान गंगा मां के पवित्र दर्शन् हेतु ऋषिकेश जाना हुआ। चुंकि मेले की तैयारियां जोर शोर से चल रहीं थीं। गंगा में पानी का स्तर थोड़ा कम था पर स्नान के लिए काफी था। जैसे ही गंगा के शीतल जल में अपने चरण रखे वैसे ही एक बच्चा जो तक़रीबन 11 वर्ष का रहा होगा, पानी के अंदर से निकल कर आया। उसके हाथ में कुछ मिट्टी और पत्थर थे। मेरी दृष्टी जैसे ही उस पर पड़ी मैने उसे अपने पास बुलाया और पूछा कि
" बेटा क्या तुम्हे डर नहीं लगता और पानी में करते क्या हो और क्या तुम्हारे माता पिता तुम्हें नहीं रोकते?"
तो उसका ज़वाब था " ये तो हमारा रोज़ का काम है। मेरी माँ पूजा के फूल,दीया बाती बेचती है, हम चार भाई बहन हैँ और चारों नदी में से सिक्के, नारियल वगैरह ढूंढ़ते हैँ।"
बच्चा गंगा जल में सिक्के ढूंढता हुआ :-
सुनकर एहसास हुआ कि हम बाल श्रम को लेकर चाहे कितने भी क़ानून बना लें, कितनी भी बड़ी बड़ी बातें कर लें, कितने भी समारोह,सेमीनार और वेबिनार आयोजित कर लें..समाज में घुसकर काम किये बिना सब बेकार है। खैर, मुझे उस बच्चे के लिए बहुत सहानुभूति महसूस हो रही थी साथ में एक अजीब सी कुंठा भी कि इतने नियम क़ानून होते हुए भी ये बच्चे अपने अधिकारों से वंचित हैँ।कितने बच्चे और होंगे ऐसे जो मज़बूर हैँ काम करने के लिए,शायद गरीबी के कारण।
इन सब ख्यालों की खिचड़ी दिमाग में पक ही रही थी कि इतने में मुझे एक शोर सुनाई दिया। दो साल के बच्चे से लेकर् तेरह चौदह वर्ष तक के बच्चे दान पात्र में रखे सामान के लिए छीना झपटी कर रहे थे। दान पात्र उनके लिए खोल दिया गया था। एहसास हुआ कि बड़ों को तो छोडो,एक दो साल के बच्चे को भी इतनी ट्रेनिंग दे दी गयी है कि वो अपना बचपन ही भूल गया है। धीरे धीरे वो भी बाल मज़दूरी का हिस्सा बन जायेगा। फूल बेचने लगेगा, गंगा से चंद सिक्के ढूँढने के लिए अपनी जान जोखिम में डालने लगेगा। लेकिन किसलिए ? सिर्फ अपना पेट भरने के लिए ?
वीडियो में बच्चे दान पात्र् से सामान निकालते हुए :-
मैने उन बच्चों से खूब बातें की। कुछ ही पल में अच्छेे दोस्त जैसे बन गये थे। उस बच्चे की बहन बोली " आंटी, हमसे यहाँ कोई अच्छे से बात नही करता..लेकिन हमें गंगा नदी की गहराई का पूरा अंदाजा है। कई बार पुलिस वाले भी हमसे मदद लेते हैँ और हम गंगा जी की सफाई में पूरा सहयोग करते हैँ और कुछ पैसे मिल जाते हैँ। हमने भी उन्हे 10-10 रुपये दिये तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। कोई बोला आज चाओमीन खाएंगे ..कोई बोला नही मोमो खाएंगे। हमने उन्हें अपनी पढ़ाई ज़ारी रखने की हिदायत भी दी। बोले "कभी कभी एक दीदी आती हैँ पढ़ाने के लिए"। उनके भोलेपन और चंचलता को देखकर मन मुस्कुरा रहा था। चुंकि शाम के 7 बज चुके थे और किसी भी तरह रात को घने जंगल को पार करके देहरादून भी वापिस पहुंचना था हम वहाँ से निकल गये।
लेकिन रास्ते में बहुत सारे प्रश्न मन को घेरे थे ये तो सिर्फ एक केस था जाने कितने बाल मज़दूर समाज में हैँ।जो असल में ज़रुरतमंद हैँ उन तक तो कोई मदद पहुँच ही नही रहीं।जड़ों में जाकर काम करना एक साहसिक कार्य है जो सबके वश की बात नहीं। बड़े बड़े समारोहों में कुछ चुनिंदा लोगों को ही पुरस्कार दे दिया जाता है। उनका क्या जो बेचारे अपना पेट भरने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैँ? खैर एक सुकून था आज पर एक मलाल भी कि और भी कुछ करना चाहिए था मुझे उनके लिए।
आपकी क्या राय है?बाल श्रम को कैसे रोका जा सका है ? क्या बाल श्रम क़ानून इसे रोके जाने में सक्षम हैँ ? आपको ये लेख कैसा लगा..ज़रूर व्यक्त कीजिएगा। ✍️अनुजा कोशिक
Superb... ऐसा लग रहा था कि सारी घटना आंखों के सामने ही घाट रही हो..👌👌👏👏👏
ReplyDeleteReally true...Ground level condition is worst ..Lot of getting awards as they have political influence
ReplyDeleteCongratulations Anujaji for raising an important point which is witnessed by us but always ignored. Present laws are not at all effective to curtail this issue. Even the law makers of these laws themselves are the violators themselves. You can see innocent children working in their houses or work places. We common people if think seriously and decide to help then can bring a turn around the situation. I must congratulate you for raising this issue so powerfully.
ReplyDeleteSuperbly written ma'am it seems we feel realistic visual.🙏🙏
ReplyDeleteAppreciate it.... Nicely written mommy.... ❤️ I really appreciate those needy people and i hope they somehow got a way to live their life like we did.....
ReplyDeleteGreat piece of writing.This is very sensitive issue of our society.
ReplyDeleteVery well written.
ReplyDeleteये कुछ ऐसे काम हैं जो शायद श्रम की श्रेणी में नहीं आते।
कुछ परिवार ऐसे भी होते हैं जिनको 'रोज कमाओ, रोज खाओ' सिद्धांत पर जीना पड़ता है। अगर 2-4 दिन कमाई ना हो तो उन्हे भूखा रहना पड़ता है। उनके लिए जिंदा रहने के लिए विद्यालय जाने से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है पैसे कमाना।
इन बच्चों को ऐसे "बाल श्रम" से बचाने के लिए परिवार की जीविका का प्रबंध होना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।