*महाभारत में दो दोस्तियों की कथा का खूब सुन्दर वर्णन है। पूरा पढ़ें*
आज इतने सालो बाद भी उस समय की दोस्ती दोस्ती के सही मायने बताती है..कृष्ण और अर्जुन के बीच की दोस्ती और दुर्योधन और कर्ण के बीच की दोस्ती। इन दोनों दोस्ती में दोस्त एक दूसरे की जान थे..एक दूसरे के लिए कुछ भी करने तैयार थे पर ऎसी क्या बात थी जो युद्धकला में अर्जुन से ज्यादा पारंगत कर्ण दोस्ती में सबकुछ हार गए और अर्जुन को दोस्ती में पूरा जहाँ मिल गया..कुछ तो बात थी..क्या फर्क था इन दोनों दोस्तियों में....
*सिर्फ फर्क था दोस्ती के भाव में उसके बीज में जैसे भाव थे वैसा बीज पड़ा था वैसा ही फल मिलना था* कर्ण ने बचपन से ही सबसे श्रेष्ठ धनुर्धर बनने की महत्वकांक्षा पाल रखी थी..उसी महत्वकांक्षा को पूरी करने के लिए उसकी दोस्ती दुर्योधन से हुई..यहाँ उसने ये भी नहीं देखा की जिसे वो दोस्त बना रहा है वो कैसा है ? और दुर्योधन के अहसान के तले दब गया और अपने दोस्त को उसकी सभी अच्छी हो या बुरी बातो में साथ देने लगा ..यहाँ उसने दोस्त को धोखा नहीं दिया पर गलत व्यक्ति से दोस्ती की तो जीवन की राह भी गलत दिशा में चली गयी .......
अर्जुन और कृष्ण तो दिल से जुड़े थे इस दोस्ती के भाव में बेहद पवित्रता थी..दोस्त के सिवाय एक दूसरे को इस दोस्ती में कुछ चाहिए भी नहीं था..मतलब दोस्ती जो कि सच्चे प्रेम का एक रूप है उसमे पूर्ण समर्पण है ।
इस महाभारत की कथा में कर्ण और अर्जुन के बीच का युद्ध एक विशेष प्रसंग है...कर्ण और अर्जुन एक ही माता के पुत्र..कर्ण को पता है पर अर्जुन को नहीं..कर्ण जानता है कि दुर्योधन का रास्ता गलत है अधर्म है वहाँ...तब भी उसका ही साथ देना उसकी मजबूरी होना ये बताता है कि गलत एहसान लेना इंसान को मजबूर कर देता है फिर वो सही रास्ते आ ही नहीं पाता..
कृष्ण अर्जुन के सच्चे दोस्त, सच्चे सलाहकार अर्जुन की रक्षा के लिए पूरी तरह से सतर्क...पर दुर्योधन जिसको सिर्फ खुद की फिक्र..खुद के स्वार्थ की लड़ाई में अपनी खुद की रक्षा के लिए अपने दोस्त का साथ माँगना यहाँ यही बताता है की स्वार्थी लोगो से दोस्ती नहीं करना उनसे दूर होना चाहिए...दोस्ती को नहीं तो लोगो के दिल के भाव को महत्त्व देना चाहिए.....
दुर्योधन ने धोखे से पांडवो के मामा शल्य को अपने पक्ष में कर के कर्ण का सारथी बना दिया तो शल्य ने भी अपने बोलों से हर समय कर्ण के मनोबल को कमजोर किया यहाँ तक कि कर्ण ने शल्य को सारथी बनाने से इंकार किया दुर्योधन ने मित्र की मनोदशा न समझते हुए शल्य को ही कर्ण का सारथी बनाया..कर्ण की हार का ये भी एक मुख्य कारण है..इससे यही पता चलता है कि जो मित्र आपकी मनोदशा न समझ सके और आप को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करे वे मित्र होने लायक नहीं..
अब कर्ण और अर्जुन के बीच में जब युद्ध शुरू हुआ तो अर्जुन ने कहा हे माधव!! कर्ण पराक्रमी तो है पर उसके सारथि स्वयं मामा शल्य है सारथि कला में वो बेहद निपुण है कही युद्ध में मै पिछड़ न जाऊँ तो कृष्ण ने अर्जुन का मनोबल बढ़ाते हुए कहा हे पार्थ !! पाशुपतास्त्र के रूप में स्वयं शिव का जिस के पास आशीर्वाद हो वो युद्ध में कभी हार ही नहीं सकता तुम युद्ध निश्चित जितने वाले हो .....
इस से यही पता चलता है अगर मनोबल बढ़ाने वाला सिर्फ एक सच्चा दोस्त साथ में हो तो कितनी भी मुश्किल परिस्थितियाँ हों उनमें से इंसान निकल जाता है..
और वहाँ जब अर्जुन का बाण चलता तो शल्य बोलते कर्ण वो देखो विद्युत की गति से चलने वाले अर्जुन के बाण तुम्हारे पास इस बाण से बचने का कोई उपाय नहीं और कर्ण का मनोबल कमजोर हो जाता।
इस लड़ाई में एक बात और थी अर्जुन ने खुद के स्वार्थ के लिए न लड़ते हुए सबके कल्याण के लिए युद्ध किया तो कर्ण ने अपनी महत्वकांक्षा को पूरी करने के लिए अपना सबकुछ पर दांव पर लगा दिया इसलिए कृष्ण और हनुमान जी के रूप में दैवीय शक्तिया अर्जुन के साथ थी इससे भी यही पता चलता है की स्वार्थ से ऊपर उठकर परमार्थ के लिए धर्म के लिए कार्य किया जाए तो दैवीय शक्तियाँ हमेशा आप के साथ रहेगी तब आपकी जीत निश्चित है..
दोस्ती तो हर कोई करता है पर एक अच्छे से इंसान से दोस्ती और प्रेम करना आप की सबसे कीमती चीज हो जाती है
तो चाहे कुछ भी हो जाये दोस्त बनाओ तो कृष्ण जैसा और दोस्ती निभाओ तो भी कृष्ण जैसी।