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Thursday, June 17, 2021

गर्मियों की छुट्टियां और नानी के घर पहुँचने का रोमांच


ये उन दिनों की बात है जब गर्मियों की छुट्टियों में नानी मामा के यहां जाने की ही बात होती थी। क्योंकि मेरी मम्मी एक सरकारी टीचर थीं तो छुट्टियों में ही प्रोग्राम बनता था। ये वो दिन थे जब फोन नहीं होते थे..सिर्फ चिठ्ठी पत्र ही एकमात्र ज़रिया थे। तो आजकल की तरह ज्यादा बातचीत नहीं हो पाती थीं। खुशी का ठिकाना नहीं होता था। 

नानी का गाँव दिल्ली से सटा हुआ एक साफ सुथरा सा गाँव था जो आजकल केमिकल के कारखानों की वज़ह से प्रदूषित हो चला है। कुछ दूर का सफर तो रेल में तय होता था और जब हम छोटे थे तो कोयले से चलने वाली रेलगाडी भी हमने देखी। मेरा मन बड़ा चंचल और उत्सुकता से भरा होता था हमेशा। मुझे अक्सर खिड़की में ही बैठना होता था ताकि आने वाले हर स्टेशन का नाम पढ़ सकूँ। मम्मी पापा अकसर मुझे अपना चेहरा अंदर की तरफ करने को बोलते कि कहीं कोयला आँख में ना घुस जाये। पर मुझे उस वक्त वो इंजन से उठता हुआ धुंआ देखना बहुत पसंद था। वो चहकती हुई मै पूरे रास्ते भरपूर आंनद लेती थी। 

अपने गँतव्य पर पहुँचते ही हम लोग रवाना होते थे अपनी नानी के गाँव की तरफ। गाँव पहुँचने से पहले कुछ जानकार मिल जाते थे तो ठीक था,नहीं तो नानी के गाँव तक यातायात के साधन ज्यादा उपलब्ध नहीं थे। थोड़ा सा किसी के आने का इंतज़ार करते तो एक दो साइकिल वाले,बुग्गी वाले या ट्रेक्टर वाले मिल जाते तो मज़ा आ जाता था। वो सभी हमारे भाई, मामा, नाना लगते थे क्योंकि वो सभी नानी के गाँव के जो होते थे। कभी कभी कोई सवारी नहीं मिलती तो हम दौड़ लेते थे अपनी ग्यारह नंबर की सवारी से उछल कूद करते हुए। गाँव होगा कोई 3-4 किलोमीटर दूर। बस सड़क खाली होती थी और हम एक दूसरे से होड़ लगाते हुए काफी सफर तो यूँ ही तय कर लेते थे। मम्मी पापा आने जाने वाले लोगों से ऐसे बात करते थे जैसे बहुत भाईचारा हो। बहुत ही अपनापन होता था तब बातों में.. एहसास ज़िंदा थे। 

खैर दौड़ते दौड़ते हम एक बड़ के पेड़ के नीचे पहुँचते थे..लाल रंग के गोल गोल फल हम अक्सर खाते..मिनरल वॉटर नहीं था उस वक्त..बड़ के पेड़ के नीचे प्याऊ था,ठंडा ठंडा पानी पीकर मज़ा आ ही जाता था। उस पेड़ के नीचे खूब मस्ती करते। आने जाने वालों के साथ या उनसे बातचीत करते गाँव की तरफ से कोई ना कोई इंतज़ाम हो ही जाता था हमारे गाँव पहुँचने का। और जैसे ही गाँव पहुँचते वहाँ जो भाईचारा और प्रेम देखने को मिलता था वो आज कहाँ। जिसकी भी नज़र पड़ती थी वही हालचाल पूछता था..ऐसा लगता था कि वो पूरा गाँव ही अपना घर था। हम छलांगे मारते हुए अपनी नानी, मामा ,मामी से जा लिपटते थे।एक अलग ही सुकून का एहसास था। 

आज वही गाँव एक मॉडर्न गाँव बन गया है। भाईचारा तो अब भी होगा परन्तु तस्वीर काफी बदल चुकी है। अब यातायात के साधन तो हैँ पर वो खाली सड़को का मज़ा नहीं रहा। वो रास्ते में आते जाते लोगों के साथ भाईचारे का अपनापन नहीं रहा। वो बड़ के पेड़ की छाँव के नीचे घड़ों के ठंडे पानी का स्वाद नहीं रहा। प्रकृति का आनंद नहीं रहा क्योंकि आधे रास्ते तक तो कंकरीट जंगल हो गये हैँ । गाँव में भी अब बड़ी बड़ी कोठियाँ बन गयी हैँ। थोड़ी शहर की हवा दिखने लगी है। मोबाईल फोन के आने से अपनों से मिलने की वो पहले वाली उत्सुकता भी नहीं रही । बहुत कुछ बदल गया है समय के साथ। 

नहीं बदली तो मेरी सुनहरी यादें जो ज़िंदगी भर मेरे दिल में ज़िंदा रहेंगी। मेरी नानी का प्यार,मेरे मामा मामी का दुलार सब कुछ। वो दिन बहुत अनमोल थे। अगले लेख में नानी के घर छुट्टीयां कैसे बिताते थे उसके बारे में लिखूँगी। 

आपको ये लेख कैसा लगा ज़रूर बताईयेगा । ✍️अनुजा कौशिक

Tuesday, June 15, 2021

विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस



मेरी आज की पोस्ट बुज़ुर्गों की सुरक्षा के प्रति जागरूकता को लेकर समर्पित है। कोशिश कर रही हूँ अपने अनुभवों के आधार पर कुछ लिखने की..शायद कुछ न्यायसंगत लिख पाऊँ। 

एक दिन देहरादून के एक हॉस्पिटल में जाना हुआ और वहाँ पर एक बुज़ुर्ग दम्पति से मिलना हुआ। चलने फिरने में असक्षम थे पर फिर भी जैसे तैसे ड्राइवर के साथ फिजियोथेरेपी के लिए पहुंचे थे। मैंने उन्हें नमस्ते की और थोड़ी देर में ही उनसे अच्छा सम्बन्ध स्थापित हो गया। बातों बातों में उनसे उनके बच्चों के बारे में पता चला कि बच्चे विदेश में अच्छी जॉब पर हैँ और वे साथ नहीं जाना चाहते। पूछने पर पता चला कि बच्चे अपनी आज़ादी चाहते हैँ और हम अपनी। 

ऐसे ही अपनी जान पहचान के कुछ बुज़ुर्गों से मिलना हुआ कई बार। मुझे उनके साथ बैठकर दिल खोलकर बात करने का मौका बहुत बार मिला। लेकिन हर बार यही ज़वाब मिला कि साथ में रहकर दुर्व्यवहार हो..संतुलन ना बन पाए..इससे अच्छा तो है कि अलग रहकर ही ज़िंदगी बिता दी जाये।

बुज़ुर्गो से बातचीत के आधार पर मेरे विचार:- 

बहुत से बुज़ुर्गों के अनुभवों के आधार पर मुझे यही आभास हुआ कि उन्हे ये लगता है कि बच्चों के साथ रहने पर कुछ घुटन सी होती है क्योंकि विचार नहीं मिल पाते। बच्चों क़ी अनचाही रोक टोक से वे आहत होते हैँ..पूरी ज़िंदगी उन्होंनें अपने ढंग से जीवन जीया और अब बच्चे उन्हें अपने ढंग से चलाना चाहते हैँ। कभी कभी तो उन्हें अपनी प्राइवेसी भंग होती हुई नज़र आती है । बच्चे उनसे आर्थिक और मानसिक आजादी छीन लेना चाहते हैँ। जिन बच्चों को उन्होंने खून पसीना एक करके लाड प्यार से पाला हो तो उनका ऊँची आवाज़ में बात करना बर्दाश्त्त नही हो पाता। अपने निर्णय लेने की क्षमता का छिन जाना भी कभी कभी मानसिक अवसाद का कारण बनता है और कई तरह की बिमारियों से घिर जाने का डर भी होता है। प्रोपर्टी के लिए भी कभी कभी सन्तानों द्वारा माता पिता को परेशान किया जाता है। शारीरिक रूप से तो होता ही है कभी कभी,पर मानसिक रूप से दुर्व्यवहार बहुत अधिक होता है। एक से अधिक भाई होने पर तो बात यहां तक पहुंच जाती है कि माँ को कौन अपने साथ रखेगा और पिता को कौन अपने साथ रहेगा। आजकल वृद्धाश्रम का चलन बहुत बढ़ गया है और जो साथ रहते हैँ वे घर की चार दीवारी के बीच प्रताड़ित होते हैँ और भी बहुत से मुद्दे हैँ जिनके कारण माता पिता अपने आपको अलग थलग रखना चाहते हैँ । सोचते हैँ उन्हे भी अपनी जिंदगी आज़ादी से जीने का हक है।

बुज़ुर्गों की सुरक्षा के लिए कानून में प्रावधान :- 

बुजुर्गों की इन्हीं समस्याओं को दृष्टिगत रखते हुए तथा लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुजुर्ग दुर्व्यवहार रोकथाम संघ की सलाह पर संयुक्त राष्ट्र ने 2006 में प्रस्ताव 66 /127 के तहत 15 जून को "बुजुर्ग दुर्व्यवहार रोकथाम दिवस" मनाना प्रारंभ किया।

बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार एक मानवाधिकार का मुद्दा है। 2017 में 'हेल्पेज  इंडिया' के मुख्य कार्यकारी अधिकारी' मैथ्यू चेरियन' का कहना है कि- 'आंकड़ों ने मुझे चौंका दिया बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार एक संवेदनशील मुद्दा है। 

पिछले कुछ सालों से हम घरों के बंद दरवाजों के पीछे बुजुर्गों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार का अध्ययन कर रहे हैं परंतु जब हमने सार्वजनिक स्थानों पर उनके साथ दुर्व्यवहार का आंंकलन किया वह भी विचारणीय है।'

बुजुर्गों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को 6 कैटिगरीज में बांटा जा सकता है-
सरंचनात्मक और सामाजिक दुर्व्यवहार
अनदेखी और परित्यक्तता
असम्मान और वृद्धों के प्रति अनुचित व्यवहार करना
मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और गाली-गलौज करना
शारीरिक रूप से मारपीट करना
आर्थिक रूप से दुर्व्यवहार करना

बुज़ुर्गों के लिए बहुत से प्रावधान हैँ क़ानून में जिनका प्रयोग करके वे एक सुरक्षित और सम्मानजनक ज़िंदगी जी सकते हैँ 

 इस मुद्दे पर मेरे विचार और निष्कर्ष :- 

उपरोक्त समस्याएँ चिंतन करने योग्य हैँ । मेरे विचार से बुज़ुर्गों के साथ पर्याप्त समय बिताना, साथ नहीं रह सकते तो समय समय पर फोन पर बात करते रहना, बच्चों को उनके साथ खेलने देना, उन्हे घर के अति महत्वपूर्ण निर्णयों में भागीदार बनाना। उनके मनोरंजन के लिए उनका ख्याल रखना। उनके साथ शील सौम्य भाषा का प्रयोग करना। ये सब बुज़ुर्गों की सभी समस्याओं को दूर कर सकते हैँ 

वहीं एक दूसरा पहलू भी है बुज़ुर्गों को अगर शांत और प्रेममय वातावरण चाहिए तो वे भी अपनी ज़िम्मेदारियां समझें। समय के साथ चलने की कोशिश करें। बच्चों की भावनाओ को समझने की कोशिश करें,गाली गलौच वाली भाषा का प्रयोग ना करें। अनावश्यक टिप्पणी ना करें और अपनों पर थोड़ा विश्वास भी बनाये रखें। जो बात बुरी लगे उसे खुलकर कहें लेकिन धैर्य के साथ। चूँकि आजकल भाग दौड़ भरी ज़िंदगी है और बच्चे आधुनिक ज़िंदगी जीना चाहते हैँ तो अनावश्यक दखल ना करें । उन्हे भी अपनी ज़िंदगी खुलकर जीने दे और खुद भी जीयें।

कुल मिलाकर यही कहना चाहूंगी कि बुज़ुर्गों के प्रति सदव्यवहार हमारा कर्तव्य बनता है। उन्हे उनके अधिकारों से वँचित रखना ईश्वर के प्रति धोखा करना है क्योंकि वे धरती पर ईश्वर का ही स्वरूप हैँ। वहीं बुज़ुर्गों को भी चाहिए कि वे भी अपने ज़माने के साथ साथ थोड़ा आधुनिकता के साथ भी तालमेल बैठाने की कोशिश करें और वहीं युवाओं को चाहिए कि वे आधुनिकता के चक्कर में अपने सस्कारों को ही ना भूल जाएँ ।दोनो पीढ़ियों के स्वस्थ तालमेल से ही सुदृढ सुरक्षित समाज की नीव सम्भव है और अगर तालमेल बैठाना सम्भव ना हो तो अलग रहकर भी एक दूसरे की देखभाल की जा सकती है। कभी कभी थोड़ा दूर रहकर भी परसपर प्रेम और भाईचारा बनाया रखा जा सकता है।

आपको ये पोस्ट कैसी लगी..अपनी राय ज़रूर व्यक्त कीजियेगा। ✍️ अनुजा कौशिक 

Saturday, June 12, 2021

बाल श्रम निषेध दिवस पर विशेष



कुम्भ मेले के दौरान गंगा मां के पवित्र दर्शन् हेतु ऋषिकेश जाना हुआ। चुंकि मेले की तैयारियां जोर शोर से चल रहीं थीं। गंगा में पानी का स्तर थोड़ा कम था पर स्नान के लिए काफी था। जैसे ही गंगा के शीतल जल में अपने चरण रखे वैसे ही एक बच्चा जो तक़रीबन 11 वर्ष का रहा होगा, पानी के अंदर से निकल कर आया। उसके हाथ में कुछ मिट्टी और पत्थर थे। मेरी दृष्टी जैसे ही उस पर पड़ी मैने उसे अपने पास बुलाया और पूछा कि

" बेटा क्या तुम्हे डर नहीं लगता और पानी में करते क्या हो और क्या तुम्हारे माता पिता तुम्हें नहीं रोकते?"

तो उसका ज़वाब था " ये तो हमारा रोज़ का काम है। मेरी माँ पूजा के फूल,दीया बाती बेचती है, हम चार भाई बहन हैँ और चारों नदी में से सिक्के, नारियल वगैरह ढूंढ़ते हैँ।" 

बच्चा गंगा जल में सिक्के ढूंढता हुआ :- 


सुनकर एहसास हुआ कि हम बाल श्रम को लेकर चाहे कितने भी क़ानून बना लें, कितनी भी बड़ी बड़ी बातें कर लें, कितने भी समारोह,सेमीनार और वेबिनार आयोजित कर लें..समाज में घुसकर काम किये बिना सब बेकार है। खैर, मुझे उस बच्चे के लिए बहुत सहानुभूति महसूस हो रही थी साथ में एक अजीब सी कुंठा भी कि इतने नियम क़ानून होते हुए भी ये बच्चे अपने अधिकारों से वंचित हैँ।कितने बच्चे और होंगे ऐसे जो मज़बूर हैँ काम करने के लिए,शायद गरीबी के कारण।

इन सब ख्यालों की खिचड़ी दिमाग में पक ही रही थी कि इतने में मुझे एक शोर सुनाई दिया। दो साल के बच्चे से लेकर् तेरह चौदह वर्ष तक के बच्चे दान पात्र में रखे सामान के लिए छीना झपटी कर रहे थे। दान पात्र उनके लिए खोल दिया गया था। एहसास हुआ कि बड़ों को तो छोडो,एक दो साल के बच्चे को भी इतनी ट्रेनिंग दे दी गयी है कि वो अपना बचपन ही भूल गया है। धीरे धीरे वो भी बाल मज़दूरी का हिस्सा बन जायेगा। फूल बेचने लगेगा, गंगा से चंद सिक्के ढूँढने के लिए अपनी जान जोखिम में डालने लगेगा। लेकिन किसलिए ? सिर्फ अपना पेट भरने के लिए ? 

वीडियो में बच्चे दान पात्र् से सामान निकालते हुए :-



मैने उन बच्चों से खूब बातें की। कुछ ही पल में अच्छेे दोस्त जैसे बन गये थे। उस बच्चे की बहन बोली " आंटी, हमसे यहाँ कोई अच्छे से बात नही करता..लेकिन हमें गंगा नदी की गहराई का पूरा अंदाजा है। कई बार पुलिस वाले भी हमसे मदद लेते हैँ और हम गंगा जी की सफाई में पूरा सहयोग करते हैँ और कुछ पैसे मिल जाते हैँ। हमने भी उन्हे 10-10 रुपये दिये तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। कोई बोला आज चाओमीन खाएंगे ..कोई बोला नही मोमो खाएंगे। हमने उन्हें अपनी पढ़ाई ज़ारी रखने की हिदायत भी दी। बोले "कभी कभी एक दीदी आती हैँ पढ़ाने के लिए"। उनके भोलेपन और चंचलता को देखकर मन मुस्कुरा रहा था। चुंकि शाम के 7 बज चुके थे और किसी भी तरह रात को घने जंगल को पार करके देहरादून भी वापिस पहुंचना था हम वहाँ से निकल गये। 

लेकिन रास्ते में बहुत सारे प्रश्न मन को घेरे थे ये तो सिर्फ एक केस था जाने कितने बाल मज़दूर समाज में हैँ।जो असल में ज़रुरतमंद हैँ उन तक तो कोई मदद पहुँच ही नही रहीं।जड़ों में जाकर काम करना एक साहसिक कार्य है जो सबके वश की बात नहीं। बड़े बड़े समारोहों में कुछ चुनिंदा लोगों को ही पुरस्कार दे दिया जाता है। उनका क्या जो बेचारे अपना पेट भरने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैँ?  खैर एक सुकून था आज पर एक मलाल भी कि और भी कुछ करना चाहिए था मुझे उनके लिए।

 आपकी क्या राय है?बाल श्रम को कैसे रोका जा सका है ? क्या बाल श्रम क़ानून इसे रोके जाने में सक्षम हैँ ? आपको ये लेख कैसा लगा..ज़रूर व्यक्त कीजिएगा। ✍️अनुजा कोशिक


Tuesday, June 8, 2021

आओ लौट चलें प्रकृति की ओर

कोविड के बाद फेफड़ों को शुद्ध हवा पहुंचाने के उद्देश्य से शाम को थोड़ा टहल रहे थे कॉलोनी में। सुहानी सी मनोरम हवा चल रही थी। पेड़ के पत्ते सर सर करते हुए लहरा रहे थे और मेंढक की टर्र टर्र की आवाज़ जैसे कानों में कह रही थी :-

*भर लो जितनी सकारात्मकता अपने अंदर भर सकते हो। कोविड कोविड करते करते मन नीरस सा हो गया होगा*

सीने में उठने वाले हल्के से दर्द की परवाह किये बिना सकारात्मकता के साथ खूब लम्बी लम्बी साँसें भरी। लगा जैसे प्रकृति बड़े से बड़े रोग को ठीक करने और घाव को भरने की ताकत रखती है। 

याद आया कैसे ठंडी हवा चलते ही और काली घटा छाते ही मेरी नानी खाट (चारपाई) का आधा हिस्सा घर की देहली के अंदर और आधा बाहर की ओर बिछा देती थी। सामने की बड़ी सी मामा जी की हवेली में मोरों को नाचते देखकर,गरज़ते बादल और वर्षा की बूंदों से मन चहक उठता था।आते जाते आसपास के लोग हालचाल पूछते रहते।

 यही हाल दादी के घर की तरफ भी था। दादी का घर शहर में होते हुए भी शाम ढलते ही सभी अपने अपने घरों के बाहर चारपाई डालकर बैठ जाते थे। ए सी की इतनी ज़रुरत नही थी तब। आते जाते सभी बातचीत करते..बच्चे बाहर खेलते रहते और रात होते ही अपना बिछोना लेकर अधिकतर लोग छत पर चढ़ जाते। सबकी खाट पंक्तिबद्द तरीक़े से बिछ जाती थीं। मिट्टी का मटका पानी भरा हुआ और एक बड़ा सा पंखा और सुबह होते होते ठंडी हवा की वजह से वो भी बंद करना पडता था। कोई भी परेशानी हो तो अपनों से बात करके..कभी कभी चाँद तारों से बात करके मन हल्का हो ही जाता था। तारे गिनते गिनते कब नींद आ जाती थी पता ही नही चलता था। आंधी आये तूफ़ान आये बारिश आये लेकिन तब तक नीचे नही उतरते थे जब तक बिल्कुल ज़रूरत ही ना पड़ जाए। 

प्रकृति और अपनो से जुड़े थे जब तो मानसिक तनाव कम होता था और बाकी बीमारियाँ भी बहुत कम होती थीं। अब भी इक्का दुक्का खाट बिछी हुई दिख जाती है पर लोग अब आधुनिक हो गये हैँ..प्रकृति से दूर, भावनाओं से दूर, पडोसियों से दूर और तो और पार्किंग की समस्या को दूर करने के लिए पेड़ पौधे भी काट रहे हैँ। ए सी लगे बंद कमरों में रहना अपनी शान समझते हैँ। पर्यावरण दिवस मनाते हैँ और प्राकृतिक चीज़ों से दूर हो रहे हैँ 

खैर, देहरादून में खाट भले ही ना दिखाई दी हो पर यहाँ प्रकृति अपना बहुत मनोरम स्वरूप बिखेरती है और सुहाना मौसम घर से बाहर निकलने को अक्सर मज़बूर कर देता है। मेरे ठीक होने मे भी यहाँ की प्रकृति का बहुत बड़ा हाथ है। सुबह शाम अपने पौधों की पत्तियों को फूँक से उड़ाकर फेफड़ों के स्वास्थ्य के लिए व्यायाम जो करती थी। इनके पास बैठकर ॐ का जाप करना ,अनुलोम विलोम करना शांति का एहसास दे जाता था।

क्षेत्र चाहे कोई भी हो प्रकृति की ओर लौटना बहुत ज़रूरी है। भाईचारे की तरफ लौटना बहुत ज़रूरी है। हम अपने कुछ पुराने संस्कारों के साथ भी आधुनिक हो सकते हैँ। आओ लौट चलें कुछ पुरानी पम्पराओं और अपनी सुंदर प्रकृति की ओर। 

और भी बहुत सारे विचार मन मे कौंध रहे हैँ..वे भी साझा करूंगी आपसे एक दिन..फिलहाल आपकी इस पोस्ट के बारे में क्या राय है..ज़रूर व्यक्त कीजिएगा। ✍️अनुजा कौशिक 



Thursday, June 3, 2021

ईश्वर की दूरदर्शिता

 


ये सब पेड़,पौधे,फूल,पत्तियां,ये नदियाँ,पहाड़,पशु पक्षी और हम इंसान ये सब ईश्वर के होने का प्रमाण तो हैँ वरना इतनी विविधता कैसे होती इस जग में। जिंदगी और  मौत भी नियम है प्रकृति का। संतुलन बनाये रखना शायद ज़रूरी है। और अब ये कोरोना इसे चाहे हम राक्षस की संज्ञा दे या फिर देवदूत की। सब हमारी सोच के ऊपर निर्भर है। हमारे पुराणो में भी व्याख्या है कि जब धरती पर पाप बढ़ने लगता है ,अहंकार बढ़ने लगता है तो ईश्वर या तो खुद प्रलय को अंजाम देते हैँ या फिर अपने देवदूत भेज देते हैँ सब सही करने के लिए। हम इंसानों को लगता है कि इंसानों पर बहुत अन्याय हो रहा है लेकिन मेरे विचार में शायद नहीं। हम इंसान भूल गये थे कि हम मालिक नही हैँ मेहमान हैँ कुछ दिन के। और ईश्वर किसी मंदिर, मस्जिद ,चर्च ,गुरूद्वारे में नही वो हमारे भीतर् है हमारे व्यवहार में, हमारे शुद्ध् आचार विचार में। अगर गहनता से हम जीवन के इस मर्म को समझें तो संसार में जब पाप बढ़ता है तो उसके बुरे प्रतिफलों से पुण्यात्माओं को भी कष्ट सहना पड़ता है। तभी तो अच्छे थे या बुरे कुछ नहीं दिखा इस कोरोना को। जन्म मरण एक चक्र है। जब तक हम प्राणी एक दूसरे के अंदर ईश्वर का दर्शन नहींं करेंगे..जब तक हम प्रेम के महत्व को नहीं समझेंगे..जब तक एक दूसरे के लिए निस्वार्थ भावनाएं नहीं रखेंगे तब तक ऐसी महामारी आती हीं रहेंगी और ये प्राणी जन्म लेते रहेंगे और मरते रहेंगे। गहराई से समझें तो कितनी दूरदर्शिता है ना ईश्वर की 🤔 पता नहीं हम इंसान कैसे और कब समझ पाएंगे...चिंतन का विषय है...आपके क्या विचार है व्यक्त् कीजियेगा ✍️ अनुजा कौशिक 😊🙏

नारी शक्ति के लिये आवाज़ #मणिपुर

 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता' जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं। यही मानते हैं ना हमारे देश में? आजक...