Anugoonz

Tuesday, June 8, 2021

आओ लौट चलें प्रकृति की ओर

कोविड के बाद फेफड़ों को शुद्ध हवा पहुंचाने के उद्देश्य से शाम को थोड़ा टहल रहे थे कॉलोनी में। सुहानी सी मनोरम हवा चल रही थी। पेड़ के पत्ते सर सर करते हुए लहरा रहे थे और मेंढक की टर्र टर्र की आवाज़ जैसे कानों में कह रही थी :-

*भर लो जितनी सकारात्मकता अपने अंदर भर सकते हो। कोविड कोविड करते करते मन नीरस सा हो गया होगा*

सीने में उठने वाले हल्के से दर्द की परवाह किये बिना सकारात्मकता के साथ खूब लम्बी लम्बी साँसें भरी। लगा जैसे प्रकृति बड़े से बड़े रोग को ठीक करने और घाव को भरने की ताकत रखती है। 

याद आया कैसे ठंडी हवा चलते ही और काली घटा छाते ही मेरी नानी खाट (चारपाई) का आधा हिस्सा घर की देहली के अंदर और आधा बाहर की ओर बिछा देती थी। सामने की बड़ी सी मामा जी की हवेली में मोरों को नाचते देखकर,गरज़ते बादल और वर्षा की बूंदों से मन चहक उठता था।आते जाते आसपास के लोग हालचाल पूछते रहते।

 यही हाल दादी के घर की तरफ भी था। दादी का घर शहर में होते हुए भी शाम ढलते ही सभी अपने अपने घरों के बाहर चारपाई डालकर बैठ जाते थे। ए सी की इतनी ज़रुरत नही थी तब। आते जाते सभी बातचीत करते..बच्चे बाहर खेलते रहते और रात होते ही अपना बिछोना लेकर अधिकतर लोग छत पर चढ़ जाते। सबकी खाट पंक्तिबद्द तरीक़े से बिछ जाती थीं। मिट्टी का मटका पानी भरा हुआ और एक बड़ा सा पंखा और सुबह होते होते ठंडी हवा की वजह से वो भी बंद करना पडता था। कोई भी परेशानी हो तो अपनों से बात करके..कभी कभी चाँद तारों से बात करके मन हल्का हो ही जाता था। तारे गिनते गिनते कब नींद आ जाती थी पता ही नही चलता था। आंधी आये तूफ़ान आये बारिश आये लेकिन तब तक नीचे नही उतरते थे जब तक बिल्कुल ज़रूरत ही ना पड़ जाए। 

प्रकृति और अपनो से जुड़े थे जब तो मानसिक तनाव कम होता था और बाकी बीमारियाँ भी बहुत कम होती थीं। अब भी इक्का दुक्का खाट बिछी हुई दिख जाती है पर लोग अब आधुनिक हो गये हैँ..प्रकृति से दूर, भावनाओं से दूर, पडोसियों से दूर और तो और पार्किंग की समस्या को दूर करने के लिए पेड़ पौधे भी काट रहे हैँ। ए सी लगे बंद कमरों में रहना अपनी शान समझते हैँ। पर्यावरण दिवस मनाते हैँ और प्राकृतिक चीज़ों से दूर हो रहे हैँ 

खैर, देहरादून में खाट भले ही ना दिखाई दी हो पर यहाँ प्रकृति अपना बहुत मनोरम स्वरूप बिखेरती है और सुहाना मौसम घर से बाहर निकलने को अक्सर मज़बूर कर देता है। मेरे ठीक होने मे भी यहाँ की प्रकृति का बहुत बड़ा हाथ है। सुबह शाम अपने पौधों की पत्तियों को फूँक से उड़ाकर फेफड़ों के स्वास्थ्य के लिए व्यायाम जो करती थी। इनके पास बैठकर ॐ का जाप करना ,अनुलोम विलोम करना शांति का एहसास दे जाता था।

क्षेत्र चाहे कोई भी हो प्रकृति की ओर लौटना बहुत ज़रूरी है। भाईचारे की तरफ लौटना बहुत ज़रूरी है। हम अपने कुछ पुराने संस्कारों के साथ भी आधुनिक हो सकते हैँ। आओ लौट चलें कुछ पुरानी पम्पराओं और अपनी सुंदर प्रकृति की ओर। 

और भी बहुत सारे विचार मन मे कौंध रहे हैँ..वे भी साझा करूंगी आपसे एक दिन..फिलहाल आपकी इस पोस्ट के बारे में क्या राय है..ज़रूर व्यक्त कीजिएगा। ✍️अनुजा कौशिक 



8 comments:

  1. यादें ताज़ा हो गईं..🤗👌👌👌

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  2. Really to nice old days remember ho gye

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  3. Jaise apni puraani zindagi mein hi

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  4. It's mind-blowing... ❤️

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  5. Nice��������

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  6. Beautiful description of thoughts..very lively feeling.

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