ये उन दिनों की बात है जब गर्मियों की छुट्टियों में नानी मामा के यहां जाने की ही बात होती थी। क्योंकि मेरी मम्मी एक सरकारी टीचर थीं तो छुट्टियों में ही प्रोग्राम बनता था। ये वो दिन थे जब फोन नहीं होते थे..सिर्फ चिठ्ठी पत्र ही एकमात्र ज़रिया थे। तो आजकल की तरह ज्यादा बातचीत नहीं हो पाती थीं। खुशी का ठिकाना नहीं होता था।
नानी का गाँव दिल्ली से सटा हुआ एक साफ सुथरा सा गाँव था जो आजकल केमिकल के कारखानों की वज़ह से प्रदूषित हो चला है। कुछ दूर का सफर तो रेल में तय होता था और जब हम छोटे थे तो कोयले से चलने वाली रेलगाडी भी हमने देखी। मेरा मन बड़ा चंचल और उत्सुकता से भरा होता था हमेशा। मुझे अक्सर खिड़की में ही बैठना होता था ताकि आने वाले हर स्टेशन का नाम पढ़ सकूँ। मम्मी पापा अकसर मुझे अपना चेहरा अंदर की तरफ करने को बोलते कि कहीं कोयला आँख में ना घुस जाये। पर मुझे उस वक्त वो इंजन से उठता हुआ धुंआ देखना बहुत पसंद था। वो चहकती हुई मै पूरे रास्ते भरपूर आंनद लेती थी।
अपने गँतव्य पर पहुँचते ही हम लोग रवाना होते थे अपनी नानी के गाँव की तरफ। गाँव पहुँचने से पहले कुछ जानकार मिल जाते थे तो ठीक था,नहीं तो नानी के गाँव तक यातायात के साधन ज्यादा उपलब्ध नहीं थे। थोड़ा सा किसी के आने का इंतज़ार करते तो एक दो साइकिल वाले,बुग्गी वाले या ट्रेक्टर वाले मिल जाते तो मज़ा आ जाता था। वो सभी हमारे भाई, मामा, नाना लगते थे क्योंकि वो सभी नानी के गाँव के जो होते थे। कभी कभी कोई सवारी नहीं मिलती तो हम दौड़ लेते थे अपनी ग्यारह नंबर की सवारी से उछल कूद करते हुए। गाँव होगा कोई 3-4 किलोमीटर दूर। बस सड़क खाली होती थी और हम एक दूसरे से होड़ लगाते हुए काफी सफर तो यूँ ही तय कर लेते थे। मम्मी पापा आने जाने वाले लोगों से ऐसे बात करते थे जैसे बहुत भाईचारा हो। बहुत ही अपनापन होता था तब बातों में.. एहसास ज़िंदा थे।
खैर दौड़ते दौड़ते हम एक बड़ के पेड़ के नीचे पहुँचते थे..लाल रंग के गोल गोल फल हम अक्सर खाते..मिनरल वॉटर नहीं था उस वक्त..बड़ के पेड़ के नीचे प्याऊ था,ठंडा ठंडा पानी पीकर मज़ा आ ही जाता था। उस पेड़ के नीचे खूब मस्ती करते। आने जाने वालों के साथ या उनसे बातचीत करते गाँव की तरफ से कोई ना कोई इंतज़ाम हो ही जाता था हमारे गाँव पहुँचने का। और जैसे ही गाँव पहुँचते वहाँ जो भाईचारा और प्रेम देखने को मिलता था वो आज कहाँ। जिसकी भी नज़र पड़ती थी वही हालचाल पूछता था..ऐसा लगता था कि वो पूरा गाँव ही अपना घर था। हम छलांगे मारते हुए अपनी नानी, मामा ,मामी से जा लिपटते थे।एक अलग ही सुकून का एहसास था।
आज वही गाँव एक मॉडर्न गाँव बन गया है। भाईचारा तो अब भी होगा परन्तु तस्वीर काफी बदल चुकी है। अब यातायात के साधन तो हैँ पर वो खाली सड़को का मज़ा नहीं रहा। वो रास्ते में आते जाते लोगों के साथ भाईचारे का अपनापन नहीं रहा। वो बड़ के पेड़ की छाँव के नीचे घड़ों के ठंडे पानी का स्वाद नहीं रहा। प्रकृति का आनंद नहीं रहा क्योंकि आधे रास्ते तक तो कंकरीट जंगल हो गये हैँ । गाँव में भी अब बड़ी बड़ी कोठियाँ बन गयी हैँ। थोड़ी शहर की हवा दिखने लगी है। मोबाईल फोन के आने से अपनों से मिलने की वो पहले वाली उत्सुकता भी नहीं रही । बहुत कुछ बदल गया है समय के साथ।
नहीं बदली तो मेरी सुनहरी यादें जो ज़िंदगी भर मेरे दिल में ज़िंदा रहेंगी। मेरी नानी का प्यार,मेरे मामा मामी का दुलार सब कुछ। वो दिन बहुत अनमोल थे। अगले लेख में नानी के घर छुट्टीयां कैसे बिताते थे उसके बारे में लिखूँगी।
आपको ये लेख कैसा लगा ज़रूर बताईयेगा । ✍️अनुजा कौशिक
गांव में आज भी अपनापन हिआँ, लोग एक दूसरे के दुख सुख में साथ देते हैं।
ReplyDeleteThis vibrates some nostalgic vibes. Bilkul shi kaha, Aajkal ke bacho ko inn sab cheezo ka experience nhi hoga,like me. Amazingly written❤️💯🙏
ReplyDeleteBhut pyari yaade hoti h nani k ghr ki jo dil se kbhi nai nikl skti
ReplyDeleteVery very nice written
अति उत्तम 👍👍👌👌
ReplyDeleteAnuja ji aapke behtareen lekh ne bachon ki sair karwa di. We saari yaaden ek dum taza ho Gaee. Aaj bhee in dino ki yaad chehre par muskan le aati hain. Shukriya iss lekh ke jariye purani yadoon ko taza karwane ke liye. Afsos ke hamari aaj ki generation iss sukhad anubhav ko mehsoos nanhi kar pa rahi.
ReplyDelete��������
ReplyDeleteअब भाईचारा और मेल मोहब्बत नहीं बची।