आजकल के अधिकतर माता पिता का लक्ष्य होता है कि उनके बच्चे अच्छे मार्क्स लाएं और प्रतियोगी परीक्षाएं पास करें..अच्छी जॉब प्राप्त करें और जीवन में खूब पैसा कमायें और तरक्की करें..परंतु मेरे विचार में किताबी ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक ज्ञान भी बहुत ज़रूरी है..हमारा युवा सीख ही नहीं पा रहा कैसे ज़िन्दगी को बेहतर और साधारण ढंग से जीया जा सकता है..हमारी शिक्षा युवा वर्ग को सिर्फ पैसा कमाने के..झूठी शान के अंधे कुएँ में धकेल रही है.. संस्कार और आदर्श तो जैसे धीरे धीरे पाश्चात्य संस्कृति की भेंट चढ़ते चले जा रहें हैँ.. सहनशक्ति और धैर्य जैसे गुण भी कम होते जा रहें हैँ..जीवन की थोड़ी सी विकट स्थिति देखते ही हमारा युवा आत्महत्या जैसा भयानक कदम उठाने को जैसे तत्पर ही है..जिस उम्र में हमारा युवा समाज और देश के प्रति ज़िम्मेदार होना चाहिये उस उम्र में वह अवसाद और मानसिक तनाव के कारण गुमराह हो रहा है..जीवन में जो भी घटित होता है हम उन्हें उनके पीछे छिपे उद्देश्य को सिखा पाने में क्यों असक्षम हैँ? जीवन का असली उद्देश्य तो अंतर्मन को जागृत करके अपने परिवार, समाज, देश और इस संसार के सभी प्राणियों के लिये सद्भावना रखना है..जब तक जीवन है तब तक इस ब्रह्माण्ड में अपनी सकारात्मक ऊर्जा फैलाना और दूसरों के सुख दुख में सहयोग करना ही इस जीवन की सार्थकता है..
जन्माष्टमी को मनाने का उद्देश्य भी यही है कि हम श्री कृष्ण जी के जीवन से कुछ सीखें..अंधकार से उजाले की ओर प्रयासरत रहना, सच्ची दोस्ती, अमिट निस्वार्थ प्रेम, सदैव धर्म के रास्ते पर चलना, हर किसी को उचित सम्मान देना, समय आने पर चतुराई से भी काम लेना, धैर्य और सहनशीलता जैसे दिव्य गुण अपनाकर क्रोध को छोड़ देना, अहंकार से दूर रहना,अपना ज्ञान दूसरों के कल्याण के लिये बांटते रहना, ज़िन्दगी को ज़िंदादिली से जीना और समस्या स्वरूप नहीं समाधान स्वरूप बनना..और भी बहुत कुछ है उनसे सीखने को..
कुल मिलाकर निचोड़ यह है कि हमें युवा वर्ग को प्रेरित करना चाहिये ये समझने के लिये कि हमारा जन्म सिर्फ अपने लिये नहीं हुआ है..स्वार्थी होने के लिये नहीं सारथी होने के लिये हुआ है..ये जीवन बहुत खूबसूरत है और इसका उद्देश्य किताबी ज्ञान और पैसा कमाने से कहीं ज्यादा है..अगर हमारा आज का युवा ये समझ जाए तो आने वाली पीढ़ियां स्वर्ग पाएंगी इस धरा पर..ये सिर्फ व्यवहारिक ज्ञान नहीं हमारा कर्तव्य भी है..और इसकी शुरुआत के लिये सबसे पहले हम बड़ों को अपने अंदर ये सुन्दर गुण भरने होंगे..तभी अपने युवा को भी प्रेरित कर पायेंगे क्योंकि हम उनके रॉल मॉडल्स हैँ.. अगर हम ही जीवन में उलझ कर रहेंगे तो अपने युवा वर्ग को कैसे सुलझा पायेंगे.? हमें अपने Belief Systems से ऊपर उठकर सोचने की ज़रूरत है..कुछ रूढ़िवादियों से ऊपर उठने की ज़रूरत है..क्यों नहीं हम अपनी युवा पीढ़ी को समय रहते अपने पवित्र ग्रंथों जैसे महाभारत, भगवद्गीता और रामायण पढ़ने के लिये प्रेरित करते..जिनमें जीवन को संतुलित ढंग से जीने के सारे सुझाव उपलब्ध हैँ..क्यों नहीं प्रेरित करते उन्हें महान लोगों की जीवनियाँ पढ़ने के लिये जिन्होने युवा होते हुए समाज और देश के लिये बहुत बलिदान दिए..त्याग किया..मेरा अनुभव है ये अगर बच्चों का दोस्त बनकर उन्हें यह सब सिखाया जाए तो यह सच में काम करता है..सही मार्गदर्शन बहुत ज़रूरी है..
आपको ये लेख कैसा लगा..आपकी क्या राय है..? ज़रूर लिखियेगा..✍️✍️ अनुजा कौशिक
Very nice ma'am we have to set up a policy for youths that's not gives educational background but it set up and taught about discpitive idealogy.
ReplyDeleteBilkul sahi
ReplyDeleteBrilliant,youth should be motivated towards positive attitude
ReplyDeleteFabulous writing✌✌.... superb... very true thinking ���� jai shree krishan..... very positive thoughts�� lovely��
ReplyDeleteSuperb thought with well positive attitude
ReplyDeleteSuperb thought with well positive attitude
ReplyDeleteYes, you are absolutely right. It's8 time to give all values and morals of life which we all have gained by our experiences and teachings, to our kids.
ReplyDeleteWell said, very nice
ReplyDeleteThanks all
ReplyDeleteअनुजा जी,
ReplyDeleteआपका लेख हमारी युवा पीढ़ी के लिए अत्यंत प्रेरणादाई है। आपके द्वारा हमारी युवा पीढ़ी की वास्तविक स्थिति के चिंतन का स्पष्ट दर्शन करवाया गया है और कुछ विशेष समस्याएं जिनसे हमारी युवा पीढ़ी गुजर रही है उसकी और भी आपके द्वारा ध्यान आकर्षित किया गया है।
जैसे सहनशक्ति की कमी, मानसिक तनाव, अवसाद, एक दूसरे के साथ चीजें बांटने की आदत की कमी और इन सभी समस्याओं की वजह से बहुत बार युवा पीढ़ी में आत्महत्या को लेकर रुझान बढ़ता जा रहा है।
मुझे ऐसा लगता है कि इस विषय पर हम सब को भी स्वयं सोचना चाहिए कि ये सभी अवगुण हमारी युवा पीढ़ी में कहां से आ रहे हैं।
क्या उसकी वजह स्वयं हम तो नहीं हैं।
जो चीज हम उन्हें देना चाहते हैं क्या स्वयं हमारे पास है।
जो अपेक्षा हम उनसे कर रहे हैं क्या हम स्वयं उन अपेक्षाओं पर खरे उतर रहे हैं।
मेरा ऐसा मानना है इन सब चीजों के पीछे एक बहुत बड़ा कारण है...... वह है एकल परिवार व्यवस्था(Nuclear Family).
पहले हमारे समाज में संयुक्त परिवारों की व्यवस्था थी परिवार में 15 से 20 जन सब इकट्ठे रहते थे।
मानता हूं कि उनके बीच में किन्हीं विषयों को लेकर आपसी मतभेद होते थे,लेकिन कभी मन भेद नहीं होते थे।
परंतु आज जब कोई पिता अपनी पुत्री के लिए वर तलाशता है, तो उसकी इच्छा यह रहती है कि मेरी पुत्री का परिवार छोटा हो।
यदि उसकी कोई ननद हो तो उसकी शादी हो चुकी हो।
लड़का अगर अपने माता-पिता से अलग रहता है तो वह उस स्थिति को सोने पर सुहागा समझता है।
परिवार में यदि लड़के के भाई भी हैं, तो वे भी सब अलग-अलग रहते हो तो यह स्थिति उसके लिए ज्यादा आरामदायक है।
ऐसे परिवार में वह अपनी बेटी का ब्याह (विवाह) खुशी-खुशी करना चाहता है और इसके पीछे वह यह तथ्य देकर अपनी बात को सही सिद्ध करता है मैं अपनी पुत्री को जानता हूं वह परिवार में अधिक लोगों के साथ सामंजस्य नहीं बना सकती वह परिवार में किसी का नखरा नहीं उठा सकती।
याद करिए वह पुराने दिन जब परिवार में दादा दादी अपने पोता पोती को अपनी चारपाई पर साथ सुलाते थे और उन्हें हमारे महापुरुषों की कहानियां सुनाते थे और उन्हीं सब कहानियों से प्रेरणा पाकर हम सब लोग अपने आप को आज उस स्थिति में महसूस करते हैं परंतु क्या हमारे बालक उस स्थिति का लाभ उठा पा रहे हैं यह एक बहुत सामान्य सी प्रक्रिया थी लेकिन बहुत से संस्कार जो आज हम महसूस करते हैं कि हमारी युवा पीढ़ी में नहीं आ पा रहे हैं और उसके लिए हम कुछ विशेष प्रयास करना चाह रहे हैं।
मेरा सुझाव यह है कि हम पुनः संयुक्त परिवार व्यवस्था पर जाने का प्रयास करें क्योंकि हमारे बुजुर्ग हमारे परिवार के लिए वह प्रेरणा के स्त्रोत है जिन्हें हम अपनी खुली आंखों से भी नहीं देख पा रहे हैं।
दादा-दादी के साथ पोते-पोतियो का संगम होने दे और फिर देखें कि जिन समस्याओं का आपने जिक्र किया है वह कैसे अपने आप ही दूर हो जाएंगी।
धन्यवाद
आपकी भावनाओं का प्रशंसक
नीरज वशिष्ठ
आप काफी हद तक ठीक हैँ ऐसा ही होना चाहिये पर यह एक एकतरफा सोच है..जहाँ तक मेरा व्यक्तिगत अनुभव है उस पर मैं ये कहना चाहूंगी कि कभी कभी बच्चों के द्वारा तालमेल बैठाये जाने के बावज़ूद माता पिता संतुलन नहीं बैठा पाते..कुछ रूढिवादियाँ जो समय के साथ खत्म हो जानी चाहिये जब वे घुटन पैदा करने लगती हैँ तो रिश्तों में असंतुलन होने लगता है और मुझे लगता है यह असंतुलन भी छोटे बच्चों के लिये ठीक नहीं..जहाँ पर अपवाद की परिस्थितियाँ बनने लगती हैँ वहाँ पर दूर रहकर रिश्ते निभाए जाएँ तो बच्चों की परवरिश ज्यादा अच्छे से की जा सकती है..रही संस्कारों की बात तो यह निर्भर करता है कि हम एकल परिवार में अपने बच्चों को सिखा क्या रहें हैँ? परिवार में अगर शान्ति हो तो साथ ज़रूर रहना चाहिये और नहीं हो तो कलह कलेश में कभी बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं मिल सकते.. युवाओं के साथ साथ बुजुर्गों का भी कर्तव्य बनता है कि वे सबके साथ सामजस्य बैठा कर चलें.. मेरे विचार थोड़े भिन्न है पर मुझे लगता है कि आज के परिवेश में दोनों पहलूओं को देखा जाना ज्यादा उचित होगा..
DeleteBahut sunder Anuja.
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